• Hindi News
  • National
  • जीवन सबसे बड़ी अदालत है, आपके कर्म इसके न्यायाधीश, अब परिणाम भी खुद ही तय करिए

जीवन सबसे बड़ी अदालत है, आपके कर्म इसके न्यायाधीश, अब परिणाम भी खुद ही तय करिए

6 वर्ष पहले
  • कॉपी लिंक
कम्युनिटी रिपोर्टर | रायपुर

जीवन सबसे बड़ी अदालत है और इसके न्यायाधीश आपके कर्म हैं। हमारे अच्छे-बुरे कामों को हमसे ज्यादा अच्छे तरीके से कौन जानता है। अब आप खुद तय कर लीजिए कि आगे आपको क्या परिणाम मिलेंगे। अगर आपको लगता है कि अच्छे परिणाम मिलेंगे तो और भी अच्छे काम करिए और लगता है कि नहीं तो अपने जीवन में कुछ ऐसा नया शुरू करिए जो आपके कर्मों की गति सुधार दे। यह विचार शुक्रवार को विवेकानंद नगर स्थित संभवनाथ जैन मंदिर में आचार्य विजय कीर्तिचंद्र ने रखे। उन्होंने आगे कहा कि जीवात्मा जिस समय जिस प्रकार के भावों को हृदय में धारण करता है, उसी क्षण उसी समय कर्म का बंधन शुरू हो जाता है। जीवात्मा को कर्म बंधन के अनुसार परिणाम भुगतने पड़ते हैं। उसके न्यायविधान में किसी के लिए कोई वरीयता नहीं है। चाहे परमात्मा तीर्थंकर हों या सामान्य जीवात्मा हो। कर्मबंधन को भोगना ही पड़ता है।



हम प्रवृत्ति से 10 प्रतिशत और वृत्ति से 90 प्रतिशत कर्म बांधते हैं। विचार श्रेणी के शुभ और अशुभ से कर्म बंधन शुरु हो जाते हैं। वृत्ति को संयोग मिलता है तो प्रवृत्ति होती है। कोई कहे कि मैंने कुछ नहीं किया है, फिर कैसे पाप बंधेगा। लेकिन कल्पना के पाप से भी कर्म बंधते हैं। हम कर्म की अपेक्षा कल्पना के पाप से ज्यादा कर्म बांधते हैं। हमें प्रवृत्ति नहीं वृत्ति कैसी है पर ध्यान देना है। आचार्यश्री ने कहा कि वृत्ति को साधेंगे तो साध्य को सिद्ध कर पाएंगे। वृत्ति साधना के तीन उपाय हैं। पहला गलत स्थान पर मत जाओ। दूसरा कुसंग का त्याग करो। तीसरा गलत साहित्य से संपर्क मत रखो। उन्होंने कहा कि धर्म वर्जित स्थान क्लब, वैश्यालय, मदिरालय, बियरबार, डांसबार आदि खराब स्थानों पर जाकर अपने भाव प्राणों को खराब मत करो। अगर आप सुधार के भाव से भी जाएंगे तो वो सुधरेंगे कि नहीं पता नहीं, लेकिन आपका खराब होना निश्चित है। उन्होंने कहा कि घर में पवित्र वातावरण बनाने के लिए गंदे चित्र , अश्लील गीत से परहेज करें, ताकि घर में दुर्गतियों की परंपरा न चल पड़े।

----



----

शुभ संकल्प लेते ही अशुभ कर्मों का क्षय खत्म: वैराग्यनिधि
जैन दादाबाड़ी में साध्वी वैराग्यनिधिश्रीजी ने कहा कि धर्म कार्य के लिए शुभ संकल्प लिया जाता है तो संकल्पकर्ता के सभी अशुभ कर्मों की निर्जरा स्वतः ही हो जाती है। पुण्य के समूह का उदय होने लग जाता है। अनाथि मुनि, श्रेणिक महाराजा, वस्तुपाल-तेजपाल के जीवन प्रसंगों से साध्वीश्री ने प्रेरणा प्रदान करते कहा कि जहां शुभ संकल्प होता है, वहां सारे कार्य स्वमेव होते चले जाते हैं और जो शुभ संकल्प धारण करता है, उसके जीवन के सारे अशुभ कर्मों का क्षय हो जाता है। परमात्मा की भक्ति में वह शक्ति है कि असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। यदि प्राण प्रण से कोई प्रभु परमात्मा का स्मरण करता है तो तत्क्षण उसके जीवन से सारी आदि-व्याधियां दूर हो जाती हैं। आवश्यकता केवल भगवान पर अटूट श्रद्धा और विश्वास की है। साध्वीश्री ने कहा, दुनिया के सारे संबंध, नाते कुछ ही दूर तक साथ होते हैं। स्वार्थपूर्ति तक या जीवन रहते तक उनका साथ होता है।



केवल एक परमात्मा ही हैं जो जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी आत्म कल्याण के लिए हमारे साथ होते हैं। उन्होंने बताया कि परमात्मा की उत्कृष्ट भक्ति और प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति का परिचय हमें श्रीमद् कलापूर्ण सूरिश्वर महाराज साहब के जीवन से मिलता है। जिनके जीवन में नित्यप्रति तीन समय भगवान के दर्शन-वंदन का नियम है। भगवान की पूजा में द्रव्य और भाव की शुद्धि साध्वीश्री ने कहा कि प्रभु परमात्मा की पूजा शुद्ध भावों और उत्तम व शुद्ध पूजन सामग्री से की जानी चाहिए। पूरी मनःशक्ति और श्रद्धा के साथ की गई पूजा से मनुष्य के भौतिक जगत की आवश्यकताएं ही नहीं, आत्मिक जगत के शुभ संकल्प भी पूरे हो जाते हैं। भगवान के प्रति हमारा अटूट श्रद्धा भाव होना चाहिए। एक प्रभु परमात्मा की पूजा से समस्त देव-देवियों की कृपा स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। भगवान के सेवा में एक करोड़ देवता रत रहते हैं। हमारा एक ही ईष्ट, एक ही श्रद्धेय होना चाहिए।

मान की जननी आग्रह, अच्छाई बताओ पर आग्रह मत करो: आचार्य विजयराज
पचपेड़ी नाका स्थित नाकोड़ा भवन में आचार्य विजयराज ने कहा कि मान यद्यपि छोटा सा शब्द है लेकिन मान जगव्यापी है। मान हर वर्ग में पाया जाता है। चाहे व्यक्ति शिक्षित हो या अनपढ़, चाहे वह साधु-संत हो या संसारी। मान को परिभाषित करते हुए ज्ञानीजनों ने कहा, अपने को ऊंचा, अच्छा और सर्वेसर्वा मानना ही मान है। प्रकृति ने मनुष्य को अच्छाई को प्रस्तुत करने, प्रगट करने का अधिकार दिया है लेकिन अच्छाई का आग्रह करने का अधिकार नहीं दिया है। अपेक्षा की पूर्ति का आग्रह ही मान है। मैंने कह दिया आपको मानना पड़ेगा,जहां-जहां आग्रह होता है वहां मान होता है। पापों के क्रम में सातवां बड़ा पाप है मान। उन्होंने आगे कहा कि दूसरों को बुरा, छोटा और निकृष्ट मानना मान है। मान इसलिए पाप है क्योंकि इसमें व्यक्ति दो विचार कषाय में जीता है जैसे अपने आपको ऊंचा दूसरो को नीचा, अपने को सर्वेसर्वा मानना, दूसरो को कुछ ना मानना।





मोहनी क्रम के उदय से मान की उत्पत्ति होती है। मोहनी क्रम की 28 प्रकृतियां है, जिनमें चरित्र मोहनी क्रम की 16 प्रकृतियां है। इसमें मोहनी क्रम के अंदर मान मोहनी क्रम की प्रकृति है। मान और मोह दोनों साथ-साथ चलते हैं। हमारे भीतर मोह के कारण मान उत्पन्न होता है। मान स्वयं को ऊंचा, अच्छा और सर्वश्रेष्ठ मानने की बहुत बड़ी भूल देता है। इस भूल से बाहर निकलना ठीक वैसा ही है जैसे अंधेरी गुफा में व्यक्ति घुस जाता है लेकिन निकलना कठिन हो जाता है। मान मोहनी क्रम का भेद है और हम सब मोहनी क्रम में जकड़े हुए हैं। हमारे जीवन में मोह राजा का साम्राज्य चला रहा है।

आचार्यश्री ने कहा कि आर्थिक, शारीरिक और बौद्धिक दृष्टि से व्यक्ति कमजोर होगा लेकिन मान बलवान होता है। इसी मान के कारण हमारे नथुने फूले रहते हैं और भौहें चढ़ी रहती है। अपने को योग्य मानना और दूसरे को अयोग्य मानना ये मान की दो परिणितियां है। ये मान कषाय बहुत बड़ा कषाय है।

उन्होंने कहा कि व्यक्ति मैं के भाव में जकड़ा रहता है। मैंने कह दिया और नहीं हुआ तो बैर, विरोध, वाद-विवाद, खटास पैदा होती है। आग्रह व्यक्ति के हृदय में मान को पैदा करती है और आगे जाकर यह हठाग्रह,पराग्रह बन जाता है। इस आग्रह के कारण व्यक्ति अशांत, असंतुष्ट और असमाधि में जीता है। इससे परिवार में विखंडन, समाज और राष्ट्र में अराजकता बढ़ती है। ज्ञानीजन कहते हैं कि सत्य के प्रति भी आग्रह न रखो। सामने वाले को सत्य समझ आ जाएगा तो वो आपकी बातों को स्वीकार करेगा। सत्य का आग्रह ही सत्यग्राही बनना है। सत्य को समझने वाले अपनी प्रज्ञा, बुद्धि को खुला रखते हैं। सत्य का प्रकाश उनके भीतर आ जाता है।

    Top Cities